बेवफाई का तीर-ऐ-तरकश, ये आम हो गया
बेवफाई का तीर-ऐ-तरकश, ये आम हो गया...
जख्मे दिल ऐ तीर के ही, गुनाहगार हो गया....
कहते थे जो, जान भी देंगे इश्क़ में,
मुकरे वही, जब दिल उनका तलबगार हो गया...
खेल है दिल का, ये बाजार बन गया...
दिल ये नुमाइश का, समान बन गया...
छोड़ दे इश्क़, अब तेरे बस का नही ये 'परदेशी',
चंद पल के सुरूर का, ये मदिरापान बन गया.....
अब आगे ......
अब इश्क़ भी सज़ा सा, एहसास बन गया,
हर धड़कन में बस, इक इलज़ाम बन गया...
चाहा था जो, वो ख़ुद पराया हो गया,
आईना भी अब, बेनाम बन गया...
रूह तक में उसकी खुशबू थी कभी,
अब वही लम्हा, धुआँ बन गया...
बेवफाई की इस दस्तक पे ऐ 'परदेशी',
दिल तो टूटा, मगर इम्तिहान बन गया...
अब ना मोहब्बत, ना शिकवा कोई,
बस खामोशी ही मेरा बयान बन गया...


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